युद्ध और शांति कविता - अवतार सिंह संधू ' पाश'

युद्ध और शांति कविता - अवतार सिंह संधू ' पाश' 


युद्ध और शांति कविता - अवतार सिंह संधू ' पाश' ( Yudh or Shanti Kavita - Avtar Singh Sandhu 'Pash')


हम जिन्होंने युद्ध नहीं किया
तुम्हारे शरीफ़ बेटे नहीं हैं ज़िंदगी!
वैसे हम हमेशा शरीफ़ बनना चाहते रहे
हमने दो रोटियों और ज़रा-सी रज़ाई के एवज़ में
युद्ध के आकार को सिकोड़ना चाहा
हम बिना शान के फंदों में शांति-सा कुछ बुनते रहे
हम बर्छी की तरह हड्डियों में चुभे सालों को उम्र कहते रहे
जब हर पल किसी अकड़ाए शरीक की तरह सिर पर गरजता रहा
हम संदूक़ में छिप-छिपकर युद्ध को टालते रहे
युद्ध से बचने की लालसा में हम बहुत छोटे हो गए
कभी तो थके हुए बाप को अन्नखाऊ बुड्ढे का नाम दिया
कभी चिंताग्रस्त बीवी को चुड़ैल का साया कहा
सदैव क्षितिज में नीलामी के दृश्य तैरते रहे
और हम नाज़ुक-सी बेटियों की आँख में आँख डालने से डरते रहे
युद्ध हमारे सिरों पर आकाश की तरह छाया रहा
हम धरती पर खोदे गढ़ों को मोर्चों में बदलने से झिझकते रहे
डर कभी हमारे हाथों पर बेगार बन उग आया
डर कभी हमारे सिरों पर पगड़ी बन सज गया
डर कभी हमारे मनों में सौंदर्य बनकर महका
डर कभी आत्मा में सज्जनता बन गया
कभी होंठों पर चुगली बनकर बुड़बड़ाया
ऐ ज़िंदगी, हम जिन्होंने युद्ध नहीं किया
तुम्हारे बहुत पाखंडी बेटे हैं
युद्ध से बचने की लालसा ने
हमें लताड़ दिया है घोड़ों के सुमों के नीचे
हम जिस शांति के लिए रेंगते रहे
वह शांति बाघों के जबड़ों में
स्वाद बनकर टपकती रही
शांति कहीं नहीं होती—
आत्मा में छिपे गीदड़ों का हौंकना ही सब कुछ है
शांति—
घुटनों में गुर्दन देकर ज़िंदगी को सपने में देखने की कोशिश है
शांति वैसे कुछ नहीं है
भूमिगत साथी से आँख बचा लेने के लिए
सड़क किनारे नाले में झुक जाना ही सब कुछ है
शांति कहीं नहीं होती
अपनी चीख़ में संगीत के अंश ढूँढ़ना ही सब कुछ है
और शांति कहीं नहीं होती
तेल बग़ैर जलती फ़सलें,
बैंक की फ़ाइलों के जाल में कड़कड़ाते गाँव
और शांति के लिए फैली बाँहें
हमारे युग का सबसे कमीना चुटकुला है
शांति बाँह में चुभी चूड़ी के आँसू जितना ज़ख़्म है
शांति बंद फाटक के पीछे
मरती हुई हवेलियों की हँसी है
शांति चौपालों में अपमानित दाढ़ियों की आह है
शांति और कुछ नहीं है
शांति दुखों और सुखों में बनी सीमा के सिपाही की राइफ़ल है
शांति जुगाली करते विद्वानों के मुँह से गिर रही लार है
शांति पुरस्कार लेते कवियों की बढ़ी हुई बाज़ुओं का ‘टुंड’ है
शांति मंत्रियों के पहने हुए खद्दर की चमक है
शांति और कुछ नहीं है
या शांति गांधी का जाँघिया है
जिसकी तनियों को चालीस करोड़ आदमियों को
फाँसी लगाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है
शांति माँगने का अर्थ
युद्ध को ज़िल्लत के स्तर पर लड़ना है
शांति कहीं नहीं होती
युद्ध के बग़ैर हम बहुत अकेले हैं
अपने ही आगे दौड़ते हुए हाँफ रहे हैं
युद्ध के बग़ैर बहुत सीमित हैं हम
बस हाथ-भर में ख़त्म हो जाते हैं
युद्ध के बग़ैर हम दोस्त नहीं हैं
झूठी-झुठलाई भावनाओं की कमाई खाते हैं
युद्ध इश्क़ के शिखर का नाम है
युद्ध लहू से मोह का नाम है
युद्ध जीने की गर्मी का नाम है
युद्ध कोमल हसरतों के मालिक होने का नाम है
युद्ध शांति की शुरुआत का नाम है
युद्ध में रोटी के हुस्न को
निहारने जैसी सूक्ष्मता है
युद्ध में शराब को सूँघने जैसा एहसास है
युद्ध यारी के लिए बढ़ा हुआ हाथ है
युद्ध किसी महबूब के लिए आँखों में लिखा ख़त है
युद्ध गोद में उठाए बच्चे की
माँ के दूध पर टिकी मासूम उँगलियाँ हैं
युद्ध किसी लड़की की पहली
‘हाँ’ जैसी ‘ना’ है
युद्ध ख़ुद को मोह भरा संबोधन है
युद्ध हमारे बच्चों के लिए
धारियोंवाली गेंद बनकर आएगा
युद्ध हमारी बहनों के लिए
कढ़ाई के सुंदर नमूने लाएगा
युद्ध हमारी बीवियों के स्तनों में
दूध बनकर उतरेगा
युद्ध बूढ़ी माँ के लिए नज़र की ऐनक बनेगा
युद्ध हमारे बुज़ुर्गों की क़ब्रों पर
फूल बनकर खिलेगा
वक़्त बहुत देर
किसी बेक़ाबू घोड़े की तरह रहा है
जो हमें घसीटता हुआ ज़िंदगी से बहुत दूर ले गया है
और कुछ नहीं, बस युद्ध ही इस घोड़े की लगाम बन सकेगा
बस युद्ध की इस घोड़े की लगाम बन सकेगा