कहानी घूंघट हटा था क्या? - श्योराज सिंह बेचैन

कहानी घूंघट हटा था क्या? - श्योराज सिंह बेचैन

कहानी घूंघट हटा था क्या? - श्योराज सिंह बेचैन( Ghunaghat Hta Tha Kya ? - Sheoraj Singh Bechain)


पत्नी के पिता ने बच्चू को दो साल सेवा करने के लिए भेजा था। चूंकि वह कथित छोटी जाति का बालक था। इसलिए सावित्री देवी के पिता भोलासिंह ने संबंधियों को समझा दिया था कि चौधरी की हवेली में इसे क्या-क्या वस्तुएं छूने देनीं हैं और क्या-क्या नहीं छूने देनी है। उसके कार्य, कायदे और घर में रहने की उसकी हदें उसे समझा दी गई थीं। बच्चू का स्कूल जाना पांचवी से ही छूट गया था। क्योंकि आगे वहां गांव में कोई स्कूल नहीं था और प्राइवेट दुकानों से ज्ञान खरीदने की उसकी हैसियत नहीं थी।

बदकिस्मती से भोलासिंह की बेटी अपनी सुसराल में सौ दिन भी नहीं गुजार पाई और उसकी मृत्यु हो गई। बताया गया कि उसे कोई स्त्री-रोग हो गया था। जिसका इलाज गांव देहात के डाक्टरों के पास नहीं था। आधुनिक अस्पताल के लिए जो धन सरकार ने दिया था वह धार्मिक आयोजनों में खर्च हो गया था।

चौधरी बलाधीन साल भीतर ही जब दूसरी शादी करने के लिए सज-धज कर निकले थे, तब पास-पड़ोस की औरतों ने कहा था, ‘इन मर्दों की जात बड़ी ही खुदगर्ज होती है। चिता की राख भी ठंडी नहीं होने दी और दूसरी ब्याह कर लाने को उतावले हो उठे हैं।’

बच्चू के एग्रीमैंट की अवधि समाप्त हो गई थी। तो वह वापस अपने घर जाने लगा। दो माह तक वापस नहीं लौटा तो, उसके माता-पिता दोनों बच्चू को लेने आ गए।

बलाधीन सेवा लेने के आदी हो चुके थे, वे हर वक्त हुक्म देते रहते थे और बच्चू भोरे से देर रात तक लगातार कामों में लगा रहता था और देर रात पशुओं की शाला में जमीन पर झूल बिछा कर सो जाता था।

उसे पढ़ने-गाने का बड़ा शौक था सो कुछ भजन, कुछ चैपाइयां गाकर ही उसे नींद आती थी। हनुमान चालीसा तो उसे कंठस्थ था।

बच्चू के पिता दयादास ने जब बेटे को वापस ले जाने का प्रस्ताव रखा तो बलाधीन की नीयत में फर्क आता दिखाई पड़ा। उसने कहा, ‘बस्ती और प्रधान की मौजूदगी में तुमने मेरी पत्नी के साथ इसे दो साल तक रखने का एग्रीमैंट किया था, परन्तु पत्नी की सेवा तो यह मात्र एक सवा साल ही कर पाया। वह तो इसकी आंखों के सामने ही गुजर गई। जब वह नहीं रही तो एग्रीमैंट भी नहीं रहा। अब तुम इसे यहीं रहने दो। मेरी दूसरी शादी की बात चल रही है जल्दी ही इसकी नई मालकिन आ जाएगी, बाकी समय यह उसके साथ पूरा करके आजाद हो जाएगा।’

बलाधीन की दूसरी शादी के लिए जो लड़की दिखाई गई, वह अपेक्षाकृत गरीब बाप की बेटी थी। हालांकि अभी वह ग्यारहवीं की छात्रा थी, परन्तु बाप जल्दी ही उसके हाथ पीले कर अपनी जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाना चाहता था।

स्कूल में जब वह गाती थी तो श्रोताओं का मन मोह लेती थी। इसका विपरीत प्रभाव यह था कि कई दबंग जातियों के बिगड़ैल लड़के उससे दोस्ती करना चाहते हैं, पिता को यह खबर खुशी नहीं देती। गांव वालों कों लड़की-लड़कों की दोस्ती स्वीकार्य नहीं थी। इसलिए पिता उसकी शादी कर किसी भावी बदनामी की आशंका से बचना चाहता था। परन्तु उसके पास दहेज स्वरूप देने के लिए कोई जमा पूंजी नहीं थी। ऐसे में बलाधीन से ब्याह रचा देने का मन बनाते हुए उसने अपनी पत्नी से परामर्श किया था, तो उसने कहा था, ‘थोड़ो कछु उमर-वुमर को हू ख्याल कर लेते। लाड़ो बिटिया अब ही पूरी सोलह साल की हू नांई भई है और चौधरी बलाधीन पचास से तो ऊपर के होवेगे ही। वाके घर की धन-दौलत कूं का चाटैगी जे?’

लाड़ो का पिता सादाराम क्षणभर के लिए गम्भीर होकर पत्नी से बोला, ‘देख जे खाते-पीते लोग ‘साठा हू पाठा’ होवें हैं और जिन्हें खाइवे पीवे कूं कछु नांइ मिले है वे जवानी की जन्नत देखे बगैर बचपन से गुजर सीधे बुढ़ापे के मुर्दाघर में प्रवेश करें हैं यानी मौत से पहले मरे हैं। मैं साठ-साठ साल के धनी को कूं घोड़ा सो दौड़तो देखतो हूं।

‘सुख से आराम में रहेगी, अच्छौ खानै खावैगी पीवैगी, तो जेऊ जल्दी जवान हो जावैगी। वैसे और कितनी बड़ी होगी तेरे कंधा तक तो पहुंच ही गई है।’

इस तरह पिता ने लाड़ो को विवाह योग्य मान लिया गया था। मां को समझा-बुझा दिया था और आनन-फानन में विवाह की तैयारी आरम्भ कर दी थी।

बारात के ठहरने और खाने का इंतजाम सेठ घेरूमल की धर्मशाला में हुआ था। ब्याह के खर्चे का पैसा बलाधीन ने अपनी ओर से भिजवाया था। बारात में सेवा के लिए भागदौड़ के काम करने के उद्देश्य से बच्चू को भी लगाया गया था।

हालांकि बलाधीन को लड़की का मुंह अकेले में पहले ही दिखा दिया गया था। परन्तु फेरों के समय सार्वजनिक रूप से दुल्हन का घूंघट नहीं हटाया गया था। ऐसे में फोटो-ग्राफरों का उत्साह फीका पड़ रहा था।

दूल्हा का मुंह खुला और दुल्हन का ढंका यह भी कोई फोटोग्राफी हुई? किसी ने कहा था, परन्तु बलाधीन की ओर से उन्हें समझा दिया गया था कि ‘जब मैं कुछ रस्में निभाने के दौरान दुल्हन के साथ अन्दर घर में अकेला होऊंगा, तब वह मेरे साथ बेपर्दा होगी। तभी तुम हम दोनों की तस्वीर उतार लेना। सब के सामने घूंघट हटाने से कोई क्या कहेगा। वैसे भी गांव की औरतें कह रही हैं कि चौधरी ने बेटी की उम्र की लड़की को बहू बनाया है।’ मानो भेड़िया बकरी पकडने आया है।

बच्चू दूर खड़ा शादी का कार्यक्रम देख रहा था। उसके मालिक की मूंछे तनी हुई थीं, चेहरा गर्व से दमक रहा था। परन्तु दुल्हन के चेहरे पर पर्दा पड़ा था। पर्दे में वह हंस रही होगी या रो रही होगी? तमाम लोग दुल्हन का चेहरा देखना चाह रहे थे। बच्चू तो अपनी मालकिन के मुखड़े की एक झलक पाने को बेताब हो रहा था। परन्तु नाकाम था।

लाड़ो जब सुसराल पहुंची तो उसका बड़ा ही भव्य स्वागत हुआ था। हालांकि उसका मन इसे गैर-जरूरी समझ रहा था, क्योंकि ब्याह करवाने का उसका तो अभी कोई इरादा ही नहीं था। वह तो अभी पढ़ना-लिखना चाहती थी। परन्तु चौधरी बलाधीन की ओर से यह आश्वासन दिया गया कि उसकी पढ़ने-लिखने की हसरत पूरी कर दी जाएगी। वे स्वयं इसी साल लड़कियों के लिए एक निजी कॉलेज खोल चुके हैं। घर पर ही कोई लेडी टीचर लगा कर लाड़ो की पढ़ाई करा दी जाएगी।

लाड़ो की पहली सुहागरात आनंद की नहीं, यातना की रात थी। एक तरह से बलात्कार ही हुआ था, उस बहू रूपी बच्ची के साथ। अगले दिन दूर खड़े बच्चू को थोड़ा पास बुला कर घूंघट में खड़ी लाड़ो का परिचय कराया कि ‘यह बच्चू है, तुम्हारी बड़ी बहन यानी हमारी पूर्व पत्नी के मायके का सेवक। यह उनके साथ ही शादी में कुछ वर्षों के लिए आया था, पर अब लगता है यहीं का हो कर रहेगा। अब यह कुल वक्त तुम्हारी सेवा में हाजिर रहेगा।’

बच्चू को यह परिचय कराने का तरीका अजीब लग रहा था, क्योंकि बलाधीन ने लाड़ो को घूंघट में रह कर ही देखने-बैठने की हिदायत पहले ही दे रखी थी, कि किसी मर्द से चाहे वह बच्चू ही क्यों न हो पर्दा हटाकर बात करने की इजाजत नहीं है। सो बच्चू तो उसका चेहरा नहीं देख सका, परन्तु लाड़ो ने एक आंख भर घूंघट उकसा कर कनखी से बच्चू को भरपूर देखा था। मानो उसने एक नजर से ही उसकी सिर से पांव तक तस्वीर उतार कर दिल के कैमरे में सहेज कर रख ली हो। बच्चू के रूप में मानो उसके सामने रामरतन आकर खड़ा हो गया हो।

उस रात बलाधीन के साथ उसे फिर एक पीड़ादायी यातना से गुजरना पड़ा। सुबह जब वह अकेली बिस्तर पर पड़ी-पड़ी सोच रही थी तब उसके मन में बच्चू की छवि कौंध रही थी। वह इसलिए भी कि उसकी छवि लाड़ो के क्लासफेलो बचपन के बायफ्रेंड रामरतन से मिल रही थी।

रामरतन गांव के गड़रिया का बेटा था। वह संस्कृत में कालीदास को बहुत अच्छा पढ़ता था। लाड़ो सोच रही थी कि रामरतन तो अब मिलने से रहा। बच्चू भी तो मेरा हमउम्र है और रामरतन की प्रति-आकृति है यही कभी मुझसे बात करे।

बलाधीन को जाने क्यों पत्नी की उम्र और अपने कुमेल विवाह का एहसास था। कथित नीची जाति के नौकरों से ऊंची जात की औरतों के संबंधों के कई प्रसंग उसके संज्ञान में थे। इसलिए वह बच्चू को लेकर अतिरिक्त सावधानी बरत रहा था। बलाधीन के ध्यान से एक वाकया नहीं उतर रहा था कि किस तरह उसके चाचा कुलराज सिंह ने चाची ‘जग्गो’ को बांझ बता कर त्याग दिया था। उसे बाप के घर भी श्यामा चमार जो एक पुश्तैनी नौकर था। आरोप था कि चाची की उस से सहानुभूति बढ़ गई थी। दबे-छिपे चाची उससे मिला करती थी। उम्मीद से हुई तो चाचा खुशी-खुशी उसे घर लाया था। उसकी इच्छा थी सो लड़का ही पैदा हुआ था। वंश चलाने वाला। पर जीवन पर्यंत वह संदेह की घुटन में घुटता रहा कि उसे उसके बेटे की सूरत श्यामा चमार की सूरत से मिलती दिखती रही थी।

यही वजह थी कि वह बच्चू को दूर रखा जाता था। वैसे भी लाड़ो के रहने-सहने का इंतजाम हवेली के दूसरे तल पर था और ऐसा कोई मौका नहीं था, जब उन दोनों को मिलने का कोई कारण बने।

उस दिन बहू का उबटन कर नहला-धुला कर गई नौकरानी कल्लो कुम्हारिन कहती जा रही थी ‘ऐ दइया यू तो गजब की मलूक है, पहली तो जाके पांव का धोवन हू न हती।’

बच्चू ने उसकी उदारता भी देखी थी, पर इसकी सूरत भी नहीं देखी। यहां रहते बच्चू को काफी समय बीत गया था। मालिक की नई बहू आने के बाद भी एक साल होने को है उसने अपनी मालकिन को कभी घूंघट से बाहर नहीं देखा।

लाड़ो के पिता और चाचा पहली बार उसे मायके वापस लेने आए। खुशी-खुशी विदा करते समय कहा कि अधिक से अधिक एक सप्ताह रख कर वापस कर जाएं। इतना सुझाव देकर लाड़ो को सहर्ष विदा किया। चार कदम चल कर कहा ‘लाड़ो को गंगा स्नान करने की इच्छा है, आप घाट के पास से ही गुजरेंगे इसे स्नान कराते हुए ले जाएं तो अच्छा लगेगा।’

बच्चू ने खुशी-खुशी साइकिल उठाई और चल पड़ा, हालांकि उसकी उम्र कम थी, परन्तु लम्बाई पूरी थी सो पैडल तक पांव आराम से पहुंच रहे थे। थोड़ी देर तो वह धीमा चलाए फिर उसने अपनी पूरी ताकत साइकिल दौड़ाने में लगा दी। काफी दिनों बाद वह साइकिल चला रहा था। अभ्यास के अभाव में वह जल्दी हांफने लग रहा था। उधर रथ-गाड़ी में बैठी लाड़ो की नाक में नथनी देख कर उसका छोटा भाई बोला, ‘दीदी अच्छी लग रही हैं। देखो शीशा तो देखो’ कहते हुए उसने रथ-गाड़ी पर्दे में टंगा हुआ छोटा सा शीशा लाड़ो के चैहरें के सामने कर दिया। तब उसकी नजर कानों पर गई और उसे झुमके की याद आ गई ‘अरे झुमका तो मैं घर पर ही भूल आई।’ दर्पण देखती हुई वह परेशान होकर बोली, ‘बापू रथ-गाड़ी रूकवा दो।’

‘क्यों, बेटी रथ-गाड़ी क्यों रूकवाना चाहती हो? ऐसी क्या बात है?’

‘बापू मेरा झुमका छूट गया।’ ‘तो छूट जाने दे बेटा, तेरा घर है, घर ही में तो छूटा है, लौट कर तो घर ही जाएगी। वैसे भी हम गाँव से चार-पांच कोस निकल आए होंगे।’

‘बापू मैं वापस लौटने को तो नहीं कह रही, परन्तु मेरा मन कह रहा है कि वे देखेंगे तो मेरा झुमका जरूर भिजवाएंगे।’

भिजवाएंगे तो तब जब वे देखेंगे, उन्हें क्या पता होगा?’ पता उन्हें न सही, पर मेरी ननद या नौकरानी उसे देखेंगी। बेटी का आग्रह मानकर लाड़ो के पिता ने उसके भाई से कहा ‘सुनो भैया, लाड़ो कह रही है तो कुछ देर ‘रथ-गाड़ी’ रोक कर देख लो। आगे नहर के सहारे बैलों को पानी पिला लो और पोटली खोल कर तुम भी कुछ खा पी लो। आधा एक घंटे के बाद फिर चल पड़ेंगे।’

उन्होंने रथ-गाड़ी रूकवा दी, बैलों को नहर में ले जाकर पानी पिला कर पेड़ से बांध दिया और वे तीनों तिल के लड्डू निकाल कर खाने लगे। लाडो घूंघट से मुक्त टकटकी बांधे रास्ते पर दूर तक देख रही थी। उसे कहीं कोई नहीं दिखाए तो वह निराश हो गई थी।

‘बैल सुस्ता लिए, हमने लड्डू खा लिए और पानी पी भी लिया। अब चलते हैं। किसी का आना तो तय नहीं है, इसलिए अब और ज्यादा इंतजार करने का कोई मतलब नहीं है। ‘चलो बेटा हम भी इतने तो मरे-गिरे नहीं हैं, जो एक झुमका और न बनवा सकें। अगर नहीं आएगा तो नया बनवा देंगे।’

लाड़ो मन मार कर बैठ गई और गाड़ी चल पड़ी। अभी आधा कोस भी नहीं निकले थे कि आगे नहर का रास्ता काट कर कोई साइकिल सवार गाड़ी की ओर आ रहा है। रथ-गाड़ी चालक तो नहीं पहचान पायाए पर बच्चू ने गाड़ी पहचान ली थी और पलक झपकते ही वह रथ-गाड़ी के पीछे आ पहुंचा था।

लाड़ो पीछे की ओर रुख किए बैठी थी। बच्चू को देखते ही उसका मन प्रफुल्लित हो उठा, परन्तु इससे पहले कि बच्चू उसके सामने आए, उसे घूंघट पल्लू खींच कर नीचे करने की चौधरी परिवार की मर्यादा याद आई। उसे सिखाया गया था कि अपने परिवार की अनुपस्थिति में भी गैर-मर्द के सामने घूंघट नहीं हटाना है। सो बच्चू के सामने आते ही उसने झट से आंखों से नीचे पल्लू खिसका लिया और सिमट कर रथ-गाड़ी के कोने में बैठ गई, मानो बच्चू नहीं उसके सामने उसका जेठ या ससुर आकर खड़ा हो गया हो। जबकि बच्चू ने उसी को संबोधित कर कहा था ‘मालकिन मैं आपका झुमका ले आया हूं।’

लाड़ो का मन हुआ, उसे रथ-गाड़ी से उतर कर गर्म जोशी के साथ कौली भर कर मासूमियत भरा बच्चू का मुंह चूम कर धन्यवाद करे। परन्तु वह परंपरा से बंधी थी। चूमना तो दूर, उसे घूंघट हटा कर भरी आंखों से देखना तक कल्पनातीत था। भाई-बापू की भी अपेक्षा यही थी कि सुसराल का एक घरेलू नौकर ही सही पर है तो पुरुष ही, लाड़ो तो इतनी अनुशासित बहू थी कि यदि बलाधीन के घर का कुत्ता भी आता तो वह उसके सम्मान में भी घूंघट नीचा कर लेती।

‘शाबाश बेटा, हम अभी गंगा नहाएंगे, तू लौट, हमें आगे चलना है। तू तो गंगा नहाएगा नहीं।’ लाड़ो के पिता ने बच्चू से कहा। जबकि बच्चू सोच रहा था कि काश कुछ दिन के लिए मालकिन घरेलू नौकर बनाकर वे उसे साथ ले जातीं। तो सुसराल में न सही मायके में तो कभी बिना घूंघट के नजर आतीं।

‘बच्चू’ पास आकर भी मालकिन का दीदार करने की अपनी हसरत पूरी नहीं कर सका। देखना चाहा तो वह घूंघट ही देख पाया। वह निराश हुआ, परन्तु उसने सोचा कि गंगाघाट तक तो वह रथ-गाड़ी के साथ जा ही सकता है।

जी, आप मुझे इजाजत दें तो मैं साईकिल से आपके पीछे-पीछे गंगा तक चलना चाहूंगा। उसके मन में था, मालकिन कहीं पानी पीयेंगी तो घूंघट उठाएगी, गंगा में नहायेंगी तो घूंघट नहीं रख पाएंगी।

वह साइकिल कभी आगे ले जाता, कभी पीछे चलाता, परन्तु दस कोस की यात्रा में घूंघट नहीं उठ पाया और आखिर झक मार कर वह वापस लौट आया।

कुछ दिन बाद वे वापस आ गईं और प्रसव-वेदना से ग्रसित हो गईं। लक्ष्मी से बोलीं, ‘दीदी बच्चू को बुला दो, मैं उससे कहूंगी कि वह जल्दी से तुम्हारे भैया को वापस बुला लाए। तब तक किसी तरह मुझे अस्पताल पहुंचाया जाए।’

बच्चू बैलों को सानी खिला रहा था। औरतें नई बहू की मुंह दिखाई करके लौट रही थीं। वे कहती जा रही थी, ‘कित्ती मलूक है, थक्क भूरी अंगरेजिन सी। पहले तो जाके पांव को धौवन हूं नाय हती। दूसरी को चाची कैसी बातें कर रही हो गोरी ही तो ना हती तनिक सांवरी हती पर नाक, नक्श बोल-चाल सब तरह गुनवती तो हती।’

बच्चू को औरतों का वार्तालाप अजीब लग रहा था, कि उसकी मालकिन के हवाले से स्त्री की सीरत के बजाय सूरत पर बातें हो रही थीं। परन्तु इतनी प्रशंसा सुन कर उस खूबसूरत मुखड़े को देखने की इच्छा और बलवती हो उठी थी। पर उसे अपनी हदें मालूम थीं। अदृश्य बंधनों का एहसास था उसे।

बलाधीन एक साल से शुभ मुहूर्त निकलने के इंतजार में रखी, बड़ी बहू की अस्थियों को विसर्जन के लिए हरिद्वार गए। घर में कई और सदस्य थे वे लाड़ो की देख-भाल का जिम्मा उन्हें सोंप कर और बच्चू को खेत-क्वार, ढ़ोर-डांगर के ढेर सारे काम बता कर मुंह अंधेरे हरिद्वार को निकल गए। उनके जाने के चार-पांच घंटे बाद ही लाड़ो को प्रसूति के दर्द होने शुरू हो गए। लाड़ो ने तड़पते हुए ननद से कहा। ननद ने कहा, ‘धीरज धरो भाभी मैं कुछ करती हूं।’

वह भागी-भागी हवेली के बाहर पशुशाला की ओर निकली।

‘बच्चू जल्दी आ तुम्हें, लाड़ो भाभी ने याद किया है।’

‘याद किया है।’ वाक्य उसके कानों में शरबत की तरह घुल गया। पर अगले ही क्षण उसने सुना, ‘भाभी की तबियत खराब है, वे कह रही हैं।’ ‘क्या कह रही है’ बच्चू ने उतावला होकर पूछा। ‘यही कि बच्चू कहां मर गया? वैसे तो बड़ा मालकिन-मालकिन करता फिरता था, अब मालकिन की जान पर बन आई है तो अस्पताल भी नहीं ले जा सकता?

‘तो मैं देखने चलूं?’ बच्चू के चलने के इरादे से लक्ष्मी को याद आया।

कहीं भाभी घूंघट नहीं रख पाई तो? अत: वह सोच कर बोली, ‘नहीं, तुझे उनके पास चलने की जरूरत नहीं है, तू ऐसा कर बस में बैठ और अभी तुरंत हरिद्वार चला जा और भैया को जल्दी घर वापस बुला कर ले आ।

‘मैं हरिद्वार में उन्हें कहां ढूंढूगा?’ बच्चू ने सवाल किया। ढूंढने की कोई जरूरत नहीं है, वे हमारे पुश्तैनी आश्रम पर ही जाते हैं। मैंने इस पर्चे में पता लिख दिया है। इतना तो तू पढ़ा-लिखा है ही। जा हरिद्वार पहुंच कर किसी से पूछ लेना। तू नहीं जाएगा तो हो सकता है आश्रम में शान्ति पाने के लिए वे दो-चार दिन वहीं रूक जाएं।’

‘तो मैं एक नजर मालकिन से मिल तो लूं।’ यह वाक्य उसने जुबान से बाहर नहीं निकलने दिया और बोला, ‘हवेली में चलूं क्या, मालकिन कुछ और कहें तो?’ ‘नहीं, वे कुछ नहीं कहेंगी, कुछ कहने-सुनने की स्थिति नहीं है उनकी। तू देर मत कर जल्दी जा। ले, सुपर फास्ट से जाना।’ पांच सौ का नोट हाथ पर रखते हुए लक्ष्मी ने कहा। बच्चू पहली बस से हरिद्वार को बैठ गया और लक्ष्मी लाड़ो के पास लौट आई। उसे देखते ही लाड़ो ने दर्द भरे स्वर में प्रश्न किया, ‘बच्चू आया नहीं क्या?’

‘भाभी, मैंने उसे भैया को बुला लाने के लिए हरिद्वार भेज दिया है। लक्ष्मी से कहा ‘अरे! बच्चू मेरे लिए डाक्टर लाता या मुझे अस्पताल ले जाता अब कब वह हरिद्वार पहुंचेगा और वे कब आएंगे?’ कराहते हुए कहा। इधर यह स्त्री घर में तड़प रही थी। घीसू-माधव की बुधिया की भांति, और बच्चू पहुंचने वाला था हरिद्वार। वह यात्रा भर लाड़ो की याद करता जा रहा था। कैसी रही होगी वह कभी घूंघट से बाहर नहीं देखा उनका मुखड़ा।

‘अब हम हरिद्वार पहुंच रहे हैं’ परिचालक ने प्रसन्नता के स्वर में समाचार दिया। उतर कर बच्चू नियत स्थान पर पहुंचा तो आश्रम वालों ने बताया ‘चैधरी तो रात ही निकल गए थे, अब तक तो वे घर भी पहुंच चुके होंगे। खासा दान-पुण्य करके गए हैं, अगले जन्म में उन्हें जरूर फल मिलेगा।’

बच्चू सुनकर पहले तो निराश हुआ कि वह रात भर सफर करके आया और मालिक से नहीं मिल पाया। तो दूसरे ही क्षण उसे इस बात का संतोष हुआ कि चलो वे मालकिन के पास पहुंच गए होंगे। तो मालकिन की हिफाजत कर लेंगे, वे स्वस्थ हो जाएंगी तो शायद किसी दिन घूंघट से बाहर भी आएंगी। मुझे भी जल्दी लौटना चाहिए। सोचता हुआ वह ‘बस स्टाप’ की ओर भाग छूटा और वापस आ रही उसी बस में जा बैठा। रास्ते भर सोचता जा रहा था कि अब तो वे मां बन जायेंगी। बच्चा खिलाने बुलायेंगी। तब तो घूंघट हटायेंगी।

उधर चौधरी बलाधीन वापस घर पहुंच गए। गांव की सीमा में घुसते ही उन्हें अपनी पत्नी की हालत का पता चल गया। कोई इसे अस्पताल नहीं ले गया है। औरतें बतियाती जा रही थीं। बहुएं बेमौत ना मरेगी तो क्या अमर होंगी। बच्चियां बच्चे पैदा करेंगी तो कच्ची की काया का क्या होगा? घड़े की तरह फूट ही जाएंगी। हाथी चैधरी चुहिया पै चढ़ेगो तो, उन्हें मौत के मुह में धकेलेगो या जिंदगी की ओर? अरी मौत तो बाकी वाही दिन तय हो गई हती जब वह फूल सी बच्ची जा पत्थर से अधेड़ के संग बांध दई। आस-पास कोई डाक्टर नहीं था। राजनीति को शिक्षा, चिकित्सा में उन्नति करना अभी प्राथमिक नहीं लग रहा था। सो उसका खामयाजा तो उठाना ही था। एक तो प्रसव प्रक्रिया में काफी रक्तस्राव हो गया था। दूसरे शहर जाने वाली लिंक रोड मे हाल की वरसात सें गहरे गढ्ढ़े हो गए थे । सो हिचकोलों से खून और अधिक निकल गया सो शहर पहुंचने से पहले ही लाड़ो दुनिया से दूर चल बसी। यहां तक कि बच्चा भी नहीं बच सका। अगली सुबह बच्चू गांव लौटा तो वह श्मशान के रास्ते ही आ रहा था। वहां उसे पता चला कि मालकिन नहीं रहीं, बल्कि धू-धू जलती चिता देख कर उसकी आंखे भर आईं। घर अन्य नौकर-चाकरों से पूछा, ‘तुमने किसी ने उनका मुखड़ा देखा था क्या? घूंघट हटा था क्या?’